शक्ति को जगाकर बने सामर्थ्यवान / Shakti ko jaga kar Bane Samarthvan By हिंदी की दुनिया इंडिया / Hindi Ki Duniya India
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नवरात्र से ही नव-संवत्सर का प्रारंभ होती है। रजस,तमस और सत्व गुण जीवन की दशा व दिशा तय करते हैं।ये तीनों गुण व्यक्ति को सामर्थ्यवान और शक्तिशाली बनाते हैं। तो चलिए विशाल सिंह के साथ रज-तम और सत्व गुणों को जगाने का प्रयास करतें हैं ...
हिंदू नववर्ष की शुरुआत नवरात्र से होती है। नवरात्र का उत्सव पूर्ण रूप से देवी से जुड़ा है। इस दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न देवियों की उपासना होती है, लेकिन मूल रूप से नवरात्र का समय देवी आराधना या शक्ति की उपासना से जुड़ा है।
नवरात्र के नौ दिन मूल रूप से तीन गुणों - रजस, तमस और सत्व-में बांटे गए हैं, जो त्रिगुण के नाम से भी जाने जाते हैं। किसी भी जीव के अस्तित्व के लिए ये तीन गुण ही मुख्य आधार हैं। रजो, तमो और सतो, इन तीनों गुणों के बिना कोई अस्तित्व संभव नहीं है। यहां तक कि एक अणु भी इन गुणों से मुक्त नहीं है। हर अणु में इनती नों गुणों या तत्वों की ऊर्जा, स्पंदन व प्रकृति का कुछ न कुछ अंश पाया जाता है। अगर ये तीनों तत्व मौजूद नहीं होंगे, तो कोई भी चीज टिक नहीं सकती, वह बिखर जाएगी। अब सवाल यह है कि आप इन तीनों को किस अनुपात में मिलाते हैं। तमस का शाब्दिक अर्थ है, निष्क्रियता और ठहराव। रजस का आशय है, सक्रियता और जोश, जबकि एक तरह से सत्व का मतलब है अपनी सीमाओं को तोड़ना, विसर्जन, विलयन व एकाकार। तीन मुख्य आकाशीय पिंडों - सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा से हमारे शरीर की मूल संरचना का गहरा संबंध है। पृथ्वी को तमस का, सूर्य को रजस का और चंद्रमा को सत्व का प्रतीक मानते हैं। जो लोग अधिकार, सत्ता, अमरत्व व ताकत की कामना करते हैं, वे देवी के तमस रूप की आराधना करेंगे, जैसे काली व धरती माता। जो लोग धन-दौलत, ऐश्वर्य, जीवन व सांसारिकता से जुड़ी चीजों की कामना करते हैं, वे स्वाभाविक तौर पर देवी के रजस रूप की आराधना करेंगे, जिसमें देवी लक्ष्मी व सूर्य आते हैं। जो लोग ज्ञान, चेतना, उत्कर्ष, और नश्वर शरीर की सीमाओं से ऊपर उठने की कामना करते हैं, वे देवी के उस सत्व रूप की आराधना करेंगे, जिसका प्रतीक सरस्वती और चंद्रमा हैं। नवरात्र के पहले तीन दिन तमस के माने जाते हैं, जिसकी देवी प्रचंड और उग्र हैं, जैसे दुर्गा या काली। इसके अगले तीन दिन रजस या लक्ष्मी से जुड़े माने जाते हैं, जो बहुत सौम्य हैं, लेकिन सांसारिकता से जुड़े हुए हैं। आखिरी तीन दिन सत्व से जुड़े माने जाते हैं, जिसकी देवी सरस्वती हैं, जो विद्या और ज्ञान से संबंधित हैं। इन तीनों गुणों में अपनी जिंदगी निवेश करने के तरीके से आपके जीवन की दशा व दिशा तय होती है। अगर आप तमस पर ज्यादा जोर देते हैं, तो आप जीवन में एक खास तरीके से ताकतवर होते हैं, इसी तरह अगर आप रजस पर जोर देते हैं, तो आप एक अलग तरीके से शक्तिशाली होते हैं। अगर आप सत्व में निवेश करते हैं, तो आप पूरी तरह से एक अलग तरीके से समर्थ बन जाते हैं। अगर आप इन तीनों ही तत्वों से ऊपर उठ जाते हैं, तो फिर मामला शक्ति का नहीं, बल्कि मुक्ति से जुड़ जाता है। इस प्रकार ये तीन गुण आपको अलग-अलग तरीके से सामर्थ्यवान और शक्तिशाली बनाते हैं। नवरात्र के उत्सव का एक अर्थ यह भी है कि आपने तमस, रजस और सत्व इन तीनों गुणों को जीत लिया है, उन पर विजय पा ली है यानी इस दौरान आप इनमें से किसी में नहीं उलझे। आप इन तीनों गुणों से होकर गुजरे, तीनों को देखा, तीनों में भागीदारी की, लेकिन आप इन तीनों से किसी भी तरह बंधे नहीं, आपने इन पर विजय पा ली। इस तरह से नवरात्र के नौ दिनों का आशय जीवन के हर पहलू के साथ पूरे उत्सव के साथ जुड़ना है। अगर आप जीवन में हर चीज के प्रति उत्सव का नजरिया रखेंगे, तो आप जीवन को लेकर कभी गंभीर नहीं होंगे और साथ ही आप हमेशा उसमें पूरी तरह से शरीक भी होंगे। दरअसल, आध्यात्मिकता का सार भी यही है।
मार्कंडेय पुराण में शक्ति का नमन सभी प्राणियों में उपस्थित बुद्धि , निद्रा, क्षुधा, छाया, क्षमा, तृष्णा, लज्जा, कांति, श्रद्धा, शांति, लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि रूपी तत्वों में किया गया है। इन सभी तत्वों के अलावा शक्ति मातृ रूप में प्रत्येक जीव में प्रस्फुटित होती हैं, क्योंकि शक्ति का अर्थ ही सृजन है, जो प्रकृति का कार्यक्षेत्र है। मूल बात है कि शक्ति ही प्रकृति है और शक्ति से ही सृजन है। जहां भी सृजन हो रहा है, वहां क्रिया महत्वपूर्ण भूमिका में उपस्थित होती है। इसलिए शक्ति और क्रिया, सामर्थ्य और कार्य आपस में गुंथे हुए हैं, एक-दूसरे को अलग नहीं किया जा सकता है। इस संसार का गति क्रम बनाए रखने के लिए क्रियाशील रहना आवश्यक है और क्रिया के लिए शक्ति का साथ जरूरी है। वेद-उपनिषद और पुराण हर जगहश शक्ति महिमा मंडित है, क्योंकि योगी और गृहस्थ हर एक को शक्ति का साथ चाहिए।
स्वयं शिव कहते हैं कि जब मैं शक्ति के साथ जुड़ जाता उस समय मैं ईश्वर बनकर कामनाओं की पूर्ति करने के लिए तत्पर होता हूं। बिना शक्ति के साथ के मैं बिल्कुल ही निस्पंद हूं, जड़ हूं। ऊर्जा की आंतरिक गतिविधि को हम रोजमर्रा में देख नहीं पाते, क्योंकि वह हमारे आंखों से ओझल रहता है, लेकिन जिस आधार पर वह खुद को अभिव्यक्त करता है- जैसे बल्ब का प्रकाश, पंखे की हवा, तब वह हमें दिखाई देती है। स्पष्ट है कि शक्ति अनुभव की वस्तु है और उसे प्रकट होने के लिए आधार की आवश्यकता है, जिससे जुड़ने के बाद शक्ति संचरित होती है। इसलिए शक्ति प्रायः ज्ञान, इच्छा, क्रिया, विचार, योग, कुंडलिनी, ध्यान और ब्रह्म के बराबर सहधर्मिणी की भांति खड़ी होती है और उस तत्व विशेष को आधार बनाकर साधक के जीवन में आंतरिक परिवर्तन की शुरुआत करती है। शक्तिहीनता की स्थिति में कर्म बाधित होता है, किंकर्तव्यविमूढ़ता से उलझना पड़ता है, भ्रांतियां घनीभूत होती हैं। इन सभी अनुभूतियों का मिला-जुला प्रभाव मनुष्य के मन में भय, अज्ञान और विषाद है और आप डर के प्रभाववश कर्म ही नहीं करना चाहते हैं। शक्ति हीनता की स्थिति में आपका नैराश्य और विषाद कुरुक्षेत्र में खड़े अर्जुन के दुख से भिन्न नहीं है, क्योंकि दोनों में कर्म से भागने का भाव बुलंद होता है। गीता में किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- कर्म नहीं करने का तुमने जो निश्चय लिया है, वह मिथ्या है, क्योंकि कर्म नहीं करने की तुम्हें स्वतंत्रता नहीं है। प्रकृति तुमसे बलात कर्म करा लेगी, क्योंकि प्रकृति अर्थात शक्ति और जहां शक्ति वहां क्रिया। दूसरी बात समझने की है कि यह प्रकृति कर्म से परिचालित है या फिर कर्म प्रकृति को नियंत्रित करती है? इस तथ्य को समझने के लिए मिट्टी और घड़े के उदाहरण को समझना होगा। घड़े में मिट्टी की प्रमुखता है, लेकिन मिट्टी जो चाहे रूप बदल सकती है- घड़ा या गिलास कुछ भी बन सकती है, अगर योग्य कुम्हार हो। उसी प्रकार, कर्म को स्वतंत्रता है कि वह कुछ भी रच ले- चाहे तो कामनापूर्ति के बंधन में बंध जाए या फिर कर्म करते हुए अपने कर्म संस्कार का क्षय करे, अगर क्रियाशील व्यक्ति चेतना से युक्त है।
हिंदू धर्म में उपवास या व्रत का सीधा अर्थ है- आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अपनी भौतिक आवश्यकताओं का परित्याग करना। कम मात्रा में भोजन या फलाहार लेकर हम इंद्रियों पर नियंत्रण करना सीखते हैं। इससे हमारे शरीर और आत्मा के बीच एक रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है या यह कहें कि उपवास तो केवल ईश्वर के प्रति समर्पण ही नहीं, बल्कि स्वयं को अनुशासित करने का उपकरण भी है। वैदिक काल में व्रत आत्मिक उन्नति के साधन थे उपवास का हमारे मन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। हमारे शरीर में 80 प्रतिशत जल और 20 प्रतिशत ठोस तत्व हैं। ज्योतिष के अनुसार, पृथ्वी के समान ही चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण हमारे शरीर के अंदर मौजूद द्रव्य को प्रभावित करता है, जिससे हम भावनात्मक स्तर पर स्थिर हो जाते हैं। ऐसे में उपवास विषनाशक औषधि के रूप में काम करता है। यह शरीर में मौजूद अम्ल को कम करता है, जिससे व्यक्ति स्वस्थ चित्त अनुभव करता है। वैसे तो सभी धर्मों में व्रत की विशेष महत्ता है, परंतु हिंदू धर्म के तो व्रत मानो प्राण हैं। व्रत तीन प्रकार के होते हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक। जब भी व्रत का जिक्र होता है, तो मन स्वतः ही किसी देवी, देवता के नाम या धार्मिक कृत्य से जुड़ जाता है। भोजन के त्याग के दृश्य सामने आने लगते हैं। शायद यही कारण है जब भी हम कोई व्रत रखते हैं, तो साथ में उपवास शब्द जोड़ देते हैं। इससे ध्यान लगाने जैसा एहसास मिलता है। विचार सकारात्मक होते हैं, जिससे मन व तन के बीच एक सौहार्दपूर्ण संबंध कायम होता है। मन एकाग्र होने लगता है। उपवास के दौरान निराहार रहने से मस्तिष्क को पूर्ण विश्राम मिलता है। सहजता से गहरी नींद आती है। हां, कोई दिक्कत है, व्रत रखने से पहले डॉक्टर की सलाह अवश्य लें।
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