मैक्लुस्कीगंज (झारखंड का मिनी लंदन) / Mccluskieganj (Jharkhand Ka Mini London) By हिंदी की दुनिया इंडिया / Hindi Ki Duniya India


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मैक्लुस्कीगंज (झारखंड का मिनी लंदन) / Mccluskieganj (Jharkhand Ka Mini London) By हिंदी की दुनिया इंडिया / Hindi Ki Duniya India

झारखंड प्रकृति की गोद में बैठा है। यहां एक से बढ़कर एक खूबसूरत जगह है। ऐसी ही जगह रांची से 65 किलोमीटर दूर एक हिल स्टेशन है मैक्लुस्कीगंज। यह जगह एंग्लो इंडियन समुदाय के लोगों द्वारा बसाया गया था। बताया जाता है कि घनघोर जंगलों और आदिवासी गांव के बीच 1933 में कॉलोनाइजेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया ने मैक्लुस्कीगंज को बसाया था। इस गांव की 10000 एकड़ जमीन को 1930 के दशक में रातू महाराज से लीज पर आर्नेस्ट टिमोथी मैक्लुस्की नामक एक एंग्लो इंडियन व्यवसायी ने लिया था। आज भी यहां पश्चिमी देशों के लोग अपने पूर्वजों की तलाश में आते हैं। इसी कारण इसे झारखंड का मिनी लंदन भी कहा जाता है। विशाल सिंह के साथ चलते हैं इस खूबसूरत हिल स्टेशन के सफर में..

-: मैक्लुस्कीगंज :-

इस स्थान पर लिखी एक किताब से पता चलता है कि अर्नेस्ट टिमोथी मैक्लुस्की का कोलकाता में बड़ा प्रॉपर्टी डीलिंग का कारोबार था। वह किसी काम से झारखंड आए और उसी समय उनका मैक्लुस्कीगंज जाना हुआ। वहां की प्राकृतिक सौंदर्य और आबोहवा ने उनको मोहित कर लिया।  गांवों में आम, जामुन, करंज, सेमल, कदंब, महुआ, भेलवा, सखुआ और परास के मंजर, फुल या फलों के सदाबहार पेड़ यहां की शोभा थे। कहा जाता है कि उनके पिता ने समाज के विरोध के बाद भी बनारस में एक भारतीय महिला से शादी कर ली थी। इसके बाद एंग्लो इंडियन परिवार को बहुत कष्ट झेलना पड़ा।

-: अंग्रेज सरकार ने एंग्लो इंडियन समुदाय के लोगों पर ध्यान देना छोड़ दिया था। :-

1930 के दशक में साइमन कमीशन की रिपोर्ट आई जिसमें एंग्लो-इंडियन समुदाय के सामने खड़े इस संकट को देखते हुए मैक्लुस्की ने तय किया कि व समुदाय के लिए एक गांव इसी भारत में बनाएंगे। बाद में ऐसा ही हुआ। कोलकाता और अन्य दूसरे महानगरों में रहने वाले कई लोग धनी एंगलो इंडियन परिवारों नेम मैक्लुस्कीगंज में डेरा जमाया, जमीन खरीदीं और आकर्षक बंगले बनवा कर यहीं रहने लगे। यहां लगभग 365 बड़े और आलीशान बंगले बनाए गए।

-: मैक्लुस्कीगंज के भी आए बुरे दिन :-

वक्त के साथ मैक्लुस्कीगंज के बुरे दिन भी आए। यह जगह विरान होने लगा। एंग्लो इंडियन इस जगह को छोड़कर जाने को मजबूर हो गए। आखिर में सेवर 2025 परिवार वहां रह गए। फिर यहां नक्सलियों का बड़ा कब्ज़ा हो गया। शाम होने के बाद घरों से निकलना मुश्किल हो गया। सुंदर बंगलो वाला शहर भूत बंगले के शहर के नाम से जाना जाने लगा। प्रमुख विचारक व चिंतन अयोध्यानाथ मिश्र ने यहां के बारे में अपने एक लेख में लिखा है की सबसे बड़ी चूक खुद एंग्लो इंडियन परिवारों की रही है। वे यहां के माटी से शत-प्रतिशत जुड़े ही नहीं, बोलते परिवेश में खुद को ढालने या कर्मठता दिखाने की चेष्टा नहीं की। जबकि उनके पास कोयले की खान जैसे संसाधन थे जहां रोजगार के कितने ही विकल्प थे। 

-: संस्थापक और अनिष्ट मैक्लुस्की थे व्यवसायी :-

आंग्ल भारतीय (एंग्लो इंडियन) के प्रतिनिधि अर्नेस्ट टिमोथी मैक्लुस्की, जो कोलकाता के प्रसिद्ध व्यवसाई थे, के द्वारा यह जगह बसाया गया है। मैक्लुस्की के नाम पर ही कालांतर में इसका नामकरण मैक्लुस्कीगंज हुआ, इसे तब छोटा इंग्लैंड या भारत का लंदन भी कहा जाता था। इस कस्बे के ठाठ बाट, फर्राटेदार अंग्रेजी, बंगलों की कारीगरी,शीतल हरी-भरी वादियों की खूबसूरती की चर्चा प्रांत एवं प्रांत के बाहर भी होने लगी। इसके गुलजार, मंत्र मुक्त वादियों की एक झलक को लोग लालायित हुआ करते थे। शरद की बर्फीली ठंडी, बसंत के पुष्पाच्छादित गुलमोहर, बारिश में डुगडुगी नदी के छोटे झरने, ग्रीष्म में जमीं चुमते आम से लदे बगीचे, हवादार बंगलों की खूबसूरती, डॉन बॉस्को विद्यालय की दमक, भारतीय राष्ट्रीय वॉलीबॉल कोच शेखर बोस का मनमोहक गेस्ट हाउस परिसर गुलमोहर, सच्चिदानंद उपाध्याय द्वारा स्थापित जागृति विहार परिसर, एंग्लो इंडियन परिवार दीपक राणा का मनमोहक को फूलों रेस्तरां से सुशोभित राणा कॉटेज, सर्वधर्म सभा स्थल जिसमें एक ही परिसर में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा एवं गिरजाघर है, स्वत: सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इस समृद्ध कस्बे का पतन प्रारंभ हुआ, अल्पायु कस्बे के लगभग 300 बंगले मृतप्राय हो गए। बेरोजगारी एवं आर्थिक तंगी के कारण इनके बारिस एक-एक कर विस्थापित हो विदेशों में बसते गए। वर्तमान में मात्र 23 एंग्लो इंडियन परिवार ही इस कस्बे को गुलजार कर रहे हैं। इनका मुख्य व्यवसाय पर्यटकों को रहने खाने हेतु बंगला, रेस्तरां एवं मनोरंजन हेतु खेल, पार्क इत्यादि की सुविधाएं मुहैया कराना है। इन फिजाओं की तुलना उत्तराखंड या हिमाचल की वादियों से की जाए तो अतिशयोक्ति नहीं।

-: पिछले कुछ सालों में बदली है तस्वीर :-

पिछले कुछ सालों में यहां की तस्वीर में काफी बदलाव आया हैं। सरकार के द्वारा यहां रोड, शिक्षा और अस्पताल की अच्छी व्यवस्था की है। इसके साथ ही नक्सलियों का सफाया होने से यह जगह एक बार फिर से पर्यटक स्थान के रूप में विकसित हो रहा है। गलियों में जरूरत की कई दुकानें खुल गई है। इसके साथ ही पर्यटकों के लिए कुछ होटल भी खुले हैं।

-: कैसे पहुंचे यहां :-

मैक्लुस्कीगंज जाने के लिए रांची से बस सेवा है। इसके अलावा आप अपनी गाड़ी से भी जा सकते हैं। इसके लिए आपको रांची से बिजुपाड़ा चौक जाना होगा। इसके बाद वहां से खलारी रोड में चामा तक, यहां से 18 किलोमीटर की दूरी पर यह स्थान बसा हुआ है। यहां सर्दियों मैं काफी ठंड होती है। दिसंबर में यहां का तापमान सुन्य तक चला जाता है। सुबह कई बार बर्फ की परत पड़ जाती है।


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